Menu
blogid : 9545 postid : 473

मानव अपने विकास का अब अंजाम देख ले (jagran junction forum )

V2...Value and Vision
V2...Value and Vision
  • 259 Posts
  • 3039 Comments

मेरे प्रिय पाठकों
उत्तराखंड में भीषण त्रासदी से प्रभावित लोगों के दुःख से हम सब दुखी हैं ,ईश्वर मृतकों की आत्मा को शान्ति दें तथा वहां फंसे लोग जल्द सही सलामत अपने घरों को वापस आ जाएं .वहां के स्थानीय निवासियों की रोजी रोटी पुनः स्थापित हो सके ….यही हमारी प्रार्थना है.इसके साथ ही सेना (आर्मी/ आई टी बी पी/ सी आई एस ऍफ़ /बी एस ऍफ़/ बी आर ओ / एयर फ़ोर्स )के बहादुर जांबाजों को उनके अनमोल योगदान के लिए शत-शत नमन है.

आज ज़िंदगी के फलसफे से सम्बंधित एहसास और भी प्रबल हो गया कि ……

बहा ले जाते हैं सैलाब किस कदर सब कुछ
उन्हें क्या पता कि कौन, कहाँ और किधर के हैं लोग ……

आपदाएं जब भी आती हैं बिना भेद-भाव के सब कुछ अपने साथ बहाती और मिटाती जाती हैं किसी ने सच कहा है…

चिराग घर का हो,महफ़िल का हो कि,मंदिर का
हवा के पास कोई मसलहत नहीं होती…

इस आपदा ने हम सब को सोचने पर मजबूर कर दिया है .क्या यह हम मनुष्य द्वारा प्रकृति से छेड़छाड़ की गुस्ताखी का भयंकर परिणाम नहीं ?? धरती सब कुछ चुपचाप सहती है पर एक सीमा तक …उस सीमा का उल्लघन होते ही भूकंप,बाढ़,सुनामी…..के रूप में वह कहर ढाने को मजबूर हो जाती है.

ऐसे स्थल जहां लाखों की संख्या में लोग दर्शनार्थ जाते हैं ….केदारनाथ ,बद्रीनाथ या ऐसे ही कई पहाडी स्थानों पर ….क्या पर्यटन के रूप में विकसित इन स्थानों की अधोसंरचना और विकास के वक्त वैज्ञानिक विधि का ध्यान रखा जाता है? नहीं ….चट्टानों को काट कर सड़क बनाने की बजाय ,जमा हुए मलबों पर ही सड़क का निर्माण…या फिर चट्टानों को विस्फोट कर फिर सड़क बनाने की कवायद…एक तरफ पहाड़ ….. तो एक तरफ गहरी खाई और फिर उन सर्पिलाकार सडकों पर विषैले गैस उत्सर्जित करते अत्यधिक वाहनों का आवागमन…. और उन वाहनों पर मौत को हाथ में लिए यात्रियों की यात्रा…वाहन और यात्रियों दोनों की संख्या में वृद्धि कर पहाड़ों की क्षमता के साथ समझौता ……इससे जनित प्रदूषण …..वनों का अति कटाव कर होटल,सराय,धर्मशाला के अलावा रिहायशी मकान भी बना देना … रोजगार सृजन के लिए उद्योग धंधों की स्थापना ..वनों को काट कर अधिकाधिक भूमि को सीढ़ीदार खेतों में तब्दील कर देना…जल विद्युत् परियोजनाओं को रूप देना…पहाडी नदियों पर अवैज्ञानिक रूप से बाँध बना देना…पर्यटन उद्योग के नाम पर स्थानीय संसाधनों का ज़रुरत से अधिक और विवेकहीन दोहन ….प्लास्टिक की बोतलों,खाद्य सामग्री के पैकेट इत्यादि का इधर -उधर बिखराव कर पहाड़ों के नैसर्गिकता के साथ खिलवाड़….पहाड़ों के नीचे ही घर बना लेना… प्रकृति को चुनौती देना ,उसकी सरासर उपेक्षा नहीं तो और क्या है ? ??गोविन्दघाट पर 3000 कार खडी करने के लिए पार्किंग स्थल बनाने की विवेकहीनता मनुष्य की है …कुदरत की नहीं. देल्ही,मुम्बई के बड़े-बड़े व्यवसायी पहाड़ों को व्यवसाय के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम मान उन्हें खरीदने में रुचि रखते हैं. कुछ बिल्डर्स तो नियमों की सर्वथा अवहेलना करते हुए कई मंजिला इमारतें बनाने से भी गुरेज़ नहीं करते.हिमालय यूँ भी नवीन पर्वत श्रींखलाओं में से एक है.ये पर्वत विकास की अन्धाधुन दबाव को झेल नहीं सकते….विस्फोट ,खनन प्रक्रिया जैसी गतिविधियों से भी ये धीरे-धीरे अन्दर ही अन्दर भुरभुरे होते जाते हैं और फिर ढाल पर तेजी से बहती पहाडी नदियों के संपर्क में आते ही भूस्खलन या चट्टान खिसकने जैसी आपदाओं का कारण बन जाते हैं.

अर्थशास्त्र की छात्रा रह चुकने के कारण ,इस विपदा पर उपजी संवेदनशीलता के बीच supermoon जैसी ज्योतिष अवधारणा से परे मैं माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत के मापदंड पर आकलन करना चाहूंगी.हालांकि इस सिद्धांत की कई बातें आलोचनाओं का शिकार हुई थीं और नव माल्थसवाद और इष्टतम जनसंख्या सिद्धांत के रूप में नए सिद्धांतों का प्रतिपादन भी हुआ था.

टॉमस रोबर्ट माल्थस ने 18 वीं शताब्दी में यूरोप के विभिन्न देशों के जनसंख्या विकास का गहन अध्ययन किया था और यूरोपीय देशों की आकस्मिक एवं त्वरित जनसंख्या वृद्धि तथा उपजे विकास प्रक्रिया से वे आतंकित हो उठे थे.उन्हें मानव का भविष्य अंधकारमय दिखाई दिया.उन्होंने जनसंख्या वृद्धि को कड़े नियंत्रण में रखने की वांछनीयता पर बल दिया.उन्होंने अपनी पुस्तक में सिद्धांत की चर्चा में कुछ मुख्य बातें की हैं…

जो इस प्रकार हैं …

1 ) उपजीविका प्रदान करने की भूमि की शक्ति की तुलना में जनसंख्या की शक्ति निस्सीम या अनंत है.

2) अनियंत्रित जनसंख्या ज्यामित्तिय अनुपात geometrical ratio  (1,2,4,6,8,… )में बढ़ती है जबकि खाद्यान्नों की पूर्ति अङ्कगनितॆय श्रेणी arithmetical progression (1,2,3,4,5,6….) से बदती है.फलस्वरूप प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है.

“This natural inequality of the two powers of population and of production in the earth and that great law of our nature which must constantly keep their effects equal,forms the great difficulty that to me appears insurmountable in the way to the perfectiability of human survival ”
– malthas

3)प्रकृति इस असंतुलन के निवारण के लिए अकाल,बाढ़,भूकंप,भुखमरी,महामारी के रूप में स्वयं ही जनवृद्धि पर नैसर्गिक प्रतिबन्ध लगाती है फलस्वरूप अतिरिक्त जनसंख्या मृत्यु का शिकार हो जाती है और जनसंख्या और खाद्य संसाधन संतुलित हो जाते है.

माल्थस नैसर्गिक प्रतिबन्ध को NATURAL CHECKS  के रूप में परिभाषित करते हैं,जो प्रकृति द्वारा तभी लागू होते हैं जब मानव स्वयं अपने द्वारा जनसँख्या की अत्यधिक वृद्धि को रोकने में असमर्थ होता है.नैसर्गिक प्रतिबन्ध वास्तव में मानव के अविवेकपूर्ण कृत्यों का उपचार मात्र है.लेकिन यह भी सत्य है  कि इन नैसर्गिक प्रतिबंधों के कारण मानव को अनगिनत कष्ट और यातनाएं झेलनी पड़ती हैं.

अगर हम थोड़ा गौर करें तो माल्थस के सिद्धांत की बातें अप्रत्यक्ष रूप में सही ही हैं.अत्यधिक जनवृद्धि …उनके लिए खाद्य सामग्री,पेय जल की व्यवस्था,रोजगार सृजन…आवास,वस्त्र,शिक्षा इत्यादि की व्यवस्था और इन से उपजी आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक रूप से अत्यधिक मात्रा में  दोहन…..कुदरत को तांडव करने को विवश कर देता है .अब इसे हम माल्थस के नैसर्गिक प्रतिबन्ध के रूप में समझें या फिर कोई अन्य व्याख्या करें पर हकीकत यही है कि ऐसी विपदाएं मानव की विवेकहीन विकास प्रक्रिया का ही अंजाम होती हैं .25 जून 2009 में पश्चिम बंगाल के सुंदरवन के गाँव आईला नामक चक्रवात की मार झेले ,मार्च 11,2011 में जापान के फुकुशिमा की आपदा, चीन के 2008 के भूकंप …प्रकृति के ऐसे कितने विनाशकारी रूप से मानव सभ्यता रूबरू हो चुकी है .

अनियोजित विकास के मार झेलती प्रकृति के  नासूर थे और इस विनाश का सृजनकर्ता मनुष्य अपने सामने ही तबाही का मंज़र देखने को विवश है .तकनीक कितनी भी विकसित हो जाए उसका अविवेकपूर्ण प्रयोग सदा विनाश लीला का मंज़र उत्पन्न करता रहेगा.इतनी बड़ी संख्या में फंसे लोगों के लिए कितनी भी उच्च तकनीक का इस्तेमाल किया जाए ….उसकी पहुँच कुदरत की रहमोकरम पर ही निर्भर करेगी.

एक बात गौर तलब यह भी है कि पहले उम्रदराज़ लोग ही ऐसी यात्राओं में निकलते थे और वह भी बहुत कम संख्या में और दुर्गम राहों पर पैदल यात्रा करते थे जबकि आज छोटे-छोटे बच्चों को साथ लिए अधिकाधिक संख्या में लोग ऐसे तीर्थ स्थानों पर जाने लगे हैं.

मानव सभ्यता वैज्ञानिकता के साथ कदम मिलाते हुए विकास की नई-नई इबारतें लिखती गई और कुदरत मानव सभ्यता के ‘गुफा युग से अंतरिक्ष युग’ तक के विकास की साक्षात गवाह रही है …..विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक विधि से होने वाले विकास की सहयोगी भी रही है .पर जब जब अति हुई है मनुष्य ने प्रकृति को खुली चुनौती दी है….तब-तब प्रकृति ने नैसर्गिक प्रतिबन्ध अवश्य लगाया है और यही वज़ह है कि सदियों से ऐसी कई आपदाएं आती रही हैं और आती रहेंगी .इससे पूर्णतः बचा भी नहीं जा सकता. हाँ,विकास की प्रक्रिया को विवेकपूर्ण ढंग से अंजाम देकर ,इसे क्षणिक लोभ के वशीभूत अल्पकालिक विकास का जामा पहना कर महज खानापूर्ति करने की प्रवृति को लगाम देकर ,इसकी तीव्रता ,कम अन्तराल में पुर्नावृति और इससे उपजे भयावह परिणाम को कम ज़रूर किया जा सकता है.

मनुष्य अगर विकास की दिशा में सही और विवेकपूर्ण कदम बढाए तो उसे समझौते करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी.हर स्थान पर उस की भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर कुछ DO’S and DONT’S  का निर्धारण होना ज़रूरी है.सूदूर पहाडी स्थानों को सडकों के द्वारा जोड़ने का स्वागत किया जाना चाहिए पर वे सड़कें उन स्थानों की ज़रुरत के अनुसार हों .उन्हें मलबों के ऊपर नहीं बल्कि चट्टानों को काट कर बनाया जाए….उन पर चलने वाले वाहनों की संख्या नियंत्रित की जाए…उन पहाड़ों की कुदरती सौंदर्य और सुषमा को स्थानीय स्पर्श तक ही सीमित रखा जाए वहां मॉल,होटल ,बहु मंजिल इमारतें बना कर विनाश के विस्फोटकों पर ना रखा जाए.पहाड़ हों या समुद्र तट …..अपनी मूलावस्था और नैसर्गिकता में ही सुन्दर और सुरक्षित रह सकते हैं.उनमें आधुनिकीकरण की पैबंद उन्हें बदसूरत बनाने के साथ-साथ असुरक्षित भी बना देते हैं जिसका भयंकर परिणाम मानव को झेलना ही पड़ता है.मानव अब भी ना चेते तो इसमें कुदरत का कोई दोष नहीं .हाँ ,वह नैसर्गिक प्रतिबन्ध लगाने से भी गुरेज़ नहीं करेगी यह बात हमें अवश्य ध्यान में रखना होगा.

कुदरत लहुलुहान है ,अब यह शाम देख ले
मानव अपने विकास का,अब अंजाम देख ले

************

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply