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“यक्ष ! कहाँ खो गया है युधिस्ठिर ?”

V2...Value and Vision
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T V ON करने के साथ, सुबह की पहली चाय ही कड़वाहट से भर गयी .वैसे तो ,यह कड़वाहट सबके लिए स्थायी सी ही हो गयी है,कुछ आधुनिक जीवन शैली से उपजी मधुमेह जैसी बीमारी की वजह से ;तो कुछ आये दिन होने वाली हिंसा की वारदाताओं से उपजी व्यथा की वजह से. सारी मिठास बीते दिनों की याद सी रह गयी है . भारत की क्रिकेट में हार,विरोधाभासों से भरा एक संवेदनहीन बजट,सत्तासीन दलों के द्वारा सत्ताच्युत दलों के लोगों के साथ मार-पीट,यानि चहुँ ओर निराशा का प्रचार-प्रसार.रहा.

अब मैं सबसे अधिक व्यथित करने वाली खबर हिंसा के विषय में ये सोचने को विवश हूँ कि यह रोज़-रोज़ होने वाली घटना किसी सोची समझी रणनीति के तहत है या परिस्तिथिजन्य ? क्या सत्तासीन होते ही दल इतने सर्वशक्तिमान हो जाते हैं कि कहीं भी, कुछ भी मनमानी कर सकते हैं?क्या सत्ताच्युत दल पूर्व में इतने संरक्षित होते हैं कि सत्ता से हटते ही वह सुरक्षा कवच हिंसा की अग्नि से पिघल जाता है?क्या अचानक ही वे निरीह और लाचार हो जाते हैं?क्या इंसानों के जंगले में शेर इतने बहुताyakshaयत हैं कि एक-दुसरे को ही लहू-लुहान कर रहे हैं ?समाज रूपी यक्ष का सामना तो यहाँ  हर पांडव कर रहा है पर अफ़सोस इस यक्ष के प्रश्नों को सुनना तो दूर वह तो उसी की ही अवहेलना कर रहा है और इसी वजह से ही मृत हो जाता है .क्या इस यक्ष समाज को कोई युधिस्ठिर नहीं मिल पायेगा जो सही और सटीक उत्तर देकर मृत पड़े पांडवों को पुनर्जीवित कर सके?

अब ज़रा इतिहास के पृष्ठों को पलटिये;और देखिये क्या हिंसा कभी नहीं थी?अगर सभी अहिंसक थे तो महावीर जैन,गौतम बुद्ध फिर क्यों और किन्हें हिंसा न करने का उपदेश दे रहे थे?मेरी इन बातों से मुझे हिंसक समझने की भूल कतई न करें,मैं सिर्फ ये कहना चाहती हूँ कि हर सत्ता परिवर्तन हिंसक घटनाओं का गवाह रहा है,हर देश काल में हिंसा रही है. पर हाँ, उसकी जानकारी देने वाले सूचना तकनीक आज की तरह कभी विकसित नहीं थे.

आज से महज़ २५-३० वर्ष पूर्व ही देखिये इलेक्ट्रोनिक media का प्रसार इतना नहीं था.प्रिंट मीडिया नैतिकता को अपनी सबसे बड़ी धरोहर मान कर ही समाचार प्रकाशित करते थे और वे आज भी इस परम्परा का पालन करते नज़र आते हैं .ऐसे में हिंसक घटनाएं स्वयं ही हाशिये पर चली जाती थीं वे भी इस ढंग से कि लोग उन घटनाओं से सतर्क और सजग हो जाते थे.

मुझे आज भी याद है मेरे पिता अपने पढने के लिए जब पुस्कालय से पत्रिकाएँ लाते थे तो उनमें उस समय की प्रचलित पत्रिकाएँ -धर्मयुग,दिनमान,reader digest ,अखंड ज्योति के साथ दो ख़ास ऐसी पत्रिकाएँ होती थीं जिन्हें हाथ लगाने की भी मनाही होती थी वे पत्रिकाएँ थीं -सत्यकथा ,मनोहर कहानियाँ.पर मानव मन तो वही काम करने का साहस जुटाता है जिसे करने से मना किया जाता है.मैंने भी पिताजी के ऑफिस जाने के बाद किसी छुपे खजाने की खोज सदृश सारी शक्ति लगा दी और अंततः उन दो पत्रिकाओं को ढूंढ़ निकाला.बचपन के स्मृति पटल पर आज भी वे शीर्षक किसी शिलालेख की तरह अमिट हैं-ह्त्या,हिंसा,अपने ही रिश्तों की घिनौनी कृत्यों ,दोस्तों की दरिंदगी जैसी अनैतिकता को समेटे वितृष्णा जगाती कहानियाँ.पिताजी के घर आने पर उन्हें बता दिया”मैंने आपके मना करने के बावजूद पत्रिकाएँ पढी ,आप ऐसी पत्रिका क्यों पढ़ते हैं?”वे निरुत्तर थे. हाँ ,पर उस दिन के बाद ऐसी पत्रिकाओं को कभी मैंने उनकी मेज़ पर नहीं पाया,

कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय ऐसी घटनाएं कुछ चुनींदी किताबों में ही पढने को मिलती थीं जो पहुँच से कोसों दूर होती थीं.पर आज किसी भी समय,कहीं भी एक क्लीक पर हर चीज़ उपलब्ध है .ऐसे कार्यक्रमों का एक निश्चित वक्त होता था.पर आज समस्त परिवार इन सत्य घटनाओं को अलग-अलग चैनलों पर एक साथ देखते हैं .मुश्किल यह है कि समाज का हर व्यक्ति,हर तबका अपनी समझ के अनुसार इन घटनाओं से सामंजस्य बिठाता है .ठीक उसी तरह जैसे एक डॉक्टर ने जब शराब के दुर्गुणों को समझाने के लिए शराब में कुछ जीवित कीड़े डाले और वे सब मर गए तो कुछ लोगों ने कहा”ओह शराब इतनी बुरी चीज़ है कि इसे पीने से हमारी मौत भी हो सकती है जबकि कुछ ने कहा, “वाह!ये शराब तो बहुत अच्छी चीज़ है ,पेट के सारे कीड़ों को मार सकती है” .इसलिए सूचनाओं के सही सम्प्रेषण और समझ की ही जब कोई guarantee नहीं है तो फिर इसके प्रसारण को कम करना ही समाज से हिंसा हटाने की रामबाण औषधि है.सूचना के क्षेत्र में अब भी कई अच्छे साधन हैं जो बहुत ही संजीदगी,सलीके से इस काम को अंजाम दे रहे हैं पर उसे थाली में परोसी उबली सब्जियों की तरह समझ ,चटपटी,मसालेदार भोजन की आदी जनता तब तक उसकी तरफ नहीं देखती जब तक वह आत्मिक ,शारीरिक और मानसिक रूप में बीमार नहीं हो जाती.
हम इस कदर वैश्विक हो गए हैं कि अपनी स्थानीय घटनाओं से तो बेखबर होते हैं पर देश-दुनिया के व्यक्तियों,घटनाओं से पूर्ण सरोकार रखते हैं .पर ऐसे में न घर के हो पाते हैं ना ही घाट के अर्थात ना तो अपने आस-पास की समस्या सुलझा पाते हैं ना ही देश-दुनिया की समस्या का समाधान कर पाते हैं. फलक की घटना से सभी अवगत हो सके पर मेरे ब्लॉग “मासूम सपने “के सोमू को उस वक्त सिर्फ स्थानीय लोग ही जान पाए थे ये सूचनाओं के तीव्र सम्प्रेषण का ही प्रभाव है .आज अगर १८५७ जैसा कोई स्वतन्त्रता संग्राम होता तो क्या वह कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित रह पाता ? नहीं, मिश्र की जैसमीन क्रान्ति की तरह वह आन्दोलन भी व्यापक प्रभाव डाल पाता.
आज सूचना तकनीक में आयी क्रान्ति ने हर वस्तु,हर व्यक्ति,हर स्थान को हर वक्त, हर व्यक्ति के लिए इतनी सहजता से उपलब्ध करा दिया है कि हर व्यक्ति easy going life ,easy accessible ,take it easy के फलसफे पर ही यकीन करता है ;इस बात से बेपरवाह कि इस easy शब्द ने ज़िन्दगी को कितना कठिन बना दिया है
हिंसा से भरी ख़बरों को भी मैं जब इससे जोड़ कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि इससे जुडी हर सामग्री, हर सूचना, समाज में बिखरी पडी है उन पर ना पहले जैसी पाबंदियां हैं न कोई बंदिश ही दिखती है जब इंसानी जंगल के शेरों को हिरन सी जनता आपस में ही लड़ते देखती है तो छुप कर इन्ही शेरों से शिकार के तरीके सीख जाती है; फिर धीरे-धीरे इस जंगल में हिरन और शेर का प्राकृतिक संतुलन स्वयं ही बिगड़ जाता है .

अब यक्ष का अंतिम प्रश्न — “हवा से तेज़ क्या ?उत्तर –मन,

यक्ष–और मन से तेज़ क्या? उत्तर–सूचना

अब सबकी नज़र उत्तर देने वाले पर थी एक सही उत्तर देने वाला यह व्यक्ति ही कहीं आज का युधिस्ठिर तो नहीं?? यह भी एक अनुतरित प्रश्न रह गया हम सबों के लिए…..???.

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