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वह नहीं मांगती ‘मर्सीडीज़ ड्राइव’

V2...Value and Vision
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मेरे प्रिय ब्लॉगर साथियों
आज मैं आप को दो ऐसी संकलित कविताएँ पढने को उपलब्ध करना चाहती हूँ जो मेरे दिल के बहुत करीब है.

1)……
माँ के घर बिटिया जन्मे बिटिया के घर माँ
बुने हुए स्वेटर में अनपढ़ माँ ने भेजा पैगाम
देहरी आँगन द्वार बुलाते कब आयेगी अपने गाँव
अरसा बीते ब्याह हुए क्या अब भी आती मेरी याद
कैसी है तू धड़क रहा मन लौटी ना बरसों बाद
मोर कबूतर अब भी छत पर दाना चुगते आते हैं
बरसाती काले बादल तेरा पता पूछ कर जाते हैं
रात की रानी की खूशबू में तेरी महक समाई है
हवा चले तो यूँ लगता है जैसे बिटिया मेरी आयी है
आज भी ताज़ा लगते हैं हल्दी के थापे हाथों के
एक-एक पल याद मुझे तेरी बचपन की बातों के
सीवन टूटती जब कपड़ों के या उधड़े जब तुरपाई
कभी तवे पर हाथ जला जब अम्मा तेरी याद आई
छोटी-छोटी लोई से मैं सूरज चाँद बनाती थी
जाली कटी उस रोटी को तू बड़े चाव से खाती थी
जोधपुरी बांधन सी मोटी हाथ पिसा मोटा आटा
झूला था भाई-बहन का कांटे-कांटे सबने बांटा
गोल झील सी गहरी रोटी उसमें घी का दर्पण था
अन्नपूर्णा आधी भूखी सब कुटुंब को अर्पण था
अब समझी मैं भरवां सब्जी आखिर में क्यूँ तरल हुई
जान लिया माँ बनकर ही औरत इतनी सरल हुई
ज्ञान हुआ मुझको कि बछिया क्यों हर शाम रम्भाती थी
गईया के थन दूध छलकता जब जंगल से आती थी
मेरे रोशनदान में अब भी चिड़िया अंडे देती है
खाना-पीना छोड़ उन्हें फिर बड़े प्यार से सेती है
मेरे ही अतीत की छाया एक सुन्दर सी बेटी है
कंधे तक तो आ पहुँची मुझसे थोड़ी छोटी है
यूँ भोली है ये फिर भी थोड़ी जिद्दी है मेरे जैसी
चाहा मैंने ना बन पाई मैं खुद भी तेरे जैसी
अम्मा तेरी मुनिया के भी पकने लगे हैं रेशमी बाल
बड़े प्यार से तेल रमा कर तूने की थी साज सम्भाल
जब से गुड़िया मुझे छोड़ परदेश गई है पढने को
उस कुम्हार सी हुई निठल्ली नहीं बचा कुछ गढ़ने को
तूने तो माँ २० बरस के बाद मुझे भेजा था ससुराल
नन्ही बच्ची देश पराया किसे सुनाये दिल का हाल
तेरी ममता की गरमी अब भी हर रात रूलाती है
बेटी की जब हुक उठे तो याद तुम्हारी आती है
जन्मूँ दोबारा तेरी कोख से तुझ सा ही जीवन पाऊँ
बेटी हो हर बार मेरी फिर उसमें खुद को दोहराऊं.
-मुन्नी शर्मा

2)
क्या लिखूं ………………
कि वो परियों का रूप होती हैं या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती हैं
वो होती हैं उदासी में हर मर्ज़ की दवा की तरह या उमस में शीतल हवा की तरह
वो चूड़ियों की छनछनाहट है या कि निश्छल खिलखिलाहट
वो आँगन में फैला उजाला है या मेरे गुस्से पे लगा ताला है
वो पहाड़ की चोटी पे सूरज की किरण है या ज़िंदगी सही जीने का आचरण है
है वो ताकत जो छोटे से घर को महल बना दे
है वो काफिला जो किसी ग़ज़ल को मुकम्मल कर दे
क्या लिखूं….
वो अक्सर जो ना हो तो वर्णमाला अधूरी है वो जो सबसे ज्यादा ज़रूरी है
ये नहीं कहूंगा कि वो हर वक़्त साथ-साथ होती है
बेटियां तो सिर्फ एक एहसास होती हैं
वो मुझसे ऑस्ट्रेलिया में छुट्टियां,मर्सीडीज़ ड्राइव
फाइव स्टार में डिनर या महंगे आई पॉड नहीं मांगती
वो ढेर से पैसे पिग्गी बैंक में उड़ेलना चाहती है
वो कुछ देर साथ खेलना चाहती है
और मैं कहता हूँ ये कि…
बेटा बहुत काम है नहीं करूंगा तो कैसे चलेगा
मज़बूरी भरे दुनिया जहां के ज़वाब देने लगता हूँ
और वो झूठा ही सही मुझे एहसास दिलाती है कि
जैसे सब कुछ समझ गई हो…
लेकिन आँखें बंद कर रोती है
जैसे सपने में खेलते हुए भी सोयी है
ज़िंदगी जाने क्यों इतनी उलझ जाती है
और हम समझते हैं बेटियां सब समझ जाती हैं.
-शैलेश लोढ़ा

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