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घड़ी की टिक टिक को
यूँ ही ना समझो….
अगले कदम के लिए
पिछले की पुकार है
जीवन के आँगन में
नूपुर की झंकार है .
दोस्तों ,कहते हैं वक़्त ही एक ऐसी शय है जो इंसान को अपने हकीकत से रूबरू करा सकती है.राजा को रंक …रंक को राजा ..बनने में देर ही कितनी लगती है.तभी तो तस्कीद की जाती है …वक़्त की क़द्र करो …वक़्त अपना व्यापार बहुत अच्छी तरह समझता है …वो आपकी क़द्र करेगा .इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी तो स्थाई नहीं है .जीवन मेें कुछ भी सदा के लिए नहीें होता । यह बात भला कौन है जो नहीें जानता । पर जिस बात को सब जानते हों उसी बात को समझने की कठिनाई तो जीवन को जटिल बना देती है ।जानना और समझना बेहद जुदा सी बातें हैंं ।
जिंदगी के सबसे आसान सबक को सीखना सबसे कठिन होता है । जिन्दगी की परीक्षा मेें अंक भी कहां होते हैं । इसमें होते हैं … सिर्फ अनुभव ।पर यही एक छोटे से बेहद साधारण से सत्य को हम कभी नहीं समझ पाते हैं.इसे इतना कठिन बना देते हैं मानो जीवन के प्रश्न पत्र का सबसे कठिन प्रश्न जिसका उत्तर तक लिखने की ज़हमत नहीं उठाते बस छोड़ देते हैं.कभी कभी लगता है …चलो ठीक भी है …स्कूल कॉलेज के डिग्री की परीक्षा हो या ज़िंदगी जीने के सैकड़ों प्रश्न की परीक्षा …जिस प्रश्न का जवाब ना आये उसे छोड़ कर आगे बढ़ना ही उचित है .कम से कम एक ही सवाल पर रूक जाने का मलाल तो जीवन भर नहीं रहेगा .वक़्त की मार हम सब पर कभी ना कभी पड़ती है .समझ में नहीं आता हम क्या करें … पर कहते हैं ना … ब्रह्माण्ड एक अदृश्य शक्ति से चल रहा है .हम उस शक्ति को भले ही देख ना सकें पर उसकी दिव्यता को कभी ना कभी अवश्य महसूस करते हैं .
उस शाम बहुत तेज बारिश हुई थी । दिन रात से भी ज्यादा स्याह सा हो गया था ।हवा का बहाव वक्त से भी ज्यादा तेज था ।या यूं कहो कि वक्त के दुख का आलम यह था कि उसने हवा को अपनी सारी गति उधार देकर थम जाना ही उचित समझ लिया था । तभी तो बगीचे पर बिखरी पत्तियाँ उड़कर गेस्ट रूम के दरवाज़े तक आ गई थी ।इतना ही नहीें कई पेड़ तक जड़ से उखड़ गए थे ।औरों के घरों के मंजर का पता नहीें क्योंकि सामाजिक एकाकी पन के अजीबोगरीब सजा ने मुझे अपने ही घर में बन्दी बनकर रहने को विवश कर दिया था ।पर मेरे घर के तीन पेड़ जड़ से उखड़ गए थे । मानो हम पर आने वाली हर परेशानी को स्वयं पर लेकर उन्होंने हमारी आत्मीयता का कर्ज उतारने का कर्तव्य पूरा कर दिया था ।सच है पेड़ पौधे यूं ही नहीें पूजे जाते हैं । वे मनुष्य से कई गुना ज्यादा संवेदनशील होते हैं । आश्चर्य की बात थी कि पेड़ जहाँ गिरे थे वहाँ पर रहने वाले घरेलू सहायक और उनके परिवार के किसी भी सदस्य को खरोंच तक नहीं आई थी ।मैंने सचमुच उस दिन दिव्य शक्ति के आभामंडल को महसूस किया था ।लोगों को भी कहते सुना ‘कुदरत का ऐसा मंजर यहाँ कभी नहीें देखा था । ‘
बस मैं शान्त थी ।मेरे सामने एक सपने की ताबीर थी ।मुझे डाॅक्टर का खेल खेलती एक नन्ही सी बच्ची बार बार दिखाई दे रही थी ।बाकि किसी भी अन्य चीज को देखने समझने के लिए आॅखों ने मानो पूरे शरीर के साथ बगावत कर ली थी ।फिर भी कुदरत के खेल के साथ इंसानियत को शर्मसार करने पर अमादा लोगों के नाटक देख सुन रही थी । वह नाटक जिस के लिए न तो किसी को कोई पैसे मिलने वाले थे न ही रूतबा ।फिर भी वह नाटक क्यों इतना जरूरी था आज भी समझ नहीें पाती ।एक चीज जरूर समझा किसी हंसते हुए परिवार को तबाह करने के उद्देश्य के पीछे कोई ठोस वजह नहीें होती ।बस अहम की संतुष्टि का पागलपन होता है ।कुदरत ही है जो इस बात को समझ पाती है तभी तो उस दिन अविश्वसनीय ढंग से चीख पुकार कर रही थी ।सचमुच उस दिन कुदरत आम दिनों की तरह कतई नहीें थी ।
दुःख इस बात का ज़रूर था कि मेरी जिस दौड़ के लिए सज़ा सुनाई गई थी वह बेहद अलहदा दौड़ थी …जिसे बगैर समझे लोगों ने मुझे सज़ा देकर स्वयं को विजयी घोषित कर दिया .
जिंदगी की दौड़ मेें
विश्वास रखती हूं ।
पर इस दौड़ मेें
न कोई मेरे आगे होता है
न ही कोई पीछे
इसलिए होती नहीें
हार जीत
मेरी दौड़ मेें
कल जहां से चली थी
दौड़ कर जाना है
आज मीलों आगे
चाहत तो बस एक ही
क्षितिज पर उगे इन्द्रधनुष की
उसी से रंग लेकर
है बांटने मुझे ।
दौड़ है …
बस इतनी सी ही बात की ।
जगह वहीं रहेगा। लोग दुआ बददुआ के धूप छांह के एहसास को सहलाते धिक्कारते एक जगह से दूसरी जगह चले जाएंगे । पर कुदरत तो स्थाई है ।उसने अपने जेहन मेें सब समेट लिया है और वह फिर से सब कुछ याद दिलाएगी । किसी को वक्त के साथ किसी को वक्त के पहले और किसी को जीवन के अंतिम पहर मेें ।
” हमेशा अच्छा करो …कभी कभी अच्छाई ब्याज के साथ वापस आती है “
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