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“सिर्फ रैन-बसेरा ना हो घरोंदा”

V2...Value and Vision
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इस ब्रह्माण्ड के प्राणी जगत में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जिसका शारीरिक,आत्मिक,मानसिक विकास समाज को नयी दिशा देने में अहम् भूमिका निभाता है.शारीरिक विकास की तो उम्र सीमा निर्धारित है पर मानसिक और आत्मिक विकास उम्र भर चल सकती है बशर्ते मनुष्य हर पल,दिन सप्ताह,महीने,साल आत्मविश्लेषण करता रहे .अगर मनुष्य ज़िन्दगी की हर अवस्था,हर उम्र में विकास का आत्मावलोकन न कर सके तो फिर वह मनुष्य की श्रेणी में ही क्यों रहे?इस हालत में उसका विकास थम जाएगा और वह एक पोखर में तब्दील हो जाएगा.
जब ज़िन्दगी अल्हड, मदमस्त,चंचल पहाड़ों से बहने वाली सरिता से; मैदानों में प्रवाहित होने के पड़ाव पर आती है तो उसमें एक गति,गहराई,परिपक्वता और विस्तृतता आ जाती है .यही वह उम्र होती है जब सब कुछ स्पष्ट होता है,चिंतन में एक गहराई होती है,ज़िम्मेदारी का बोध रहता है,सही-गलत,सच-झूठ की विभाजन रेखा साफ-साफ़ दिखाई देती हैपर हाँ एक गलती ज़रूर हो जाती है कि भौतिकता की अंधी दौड़ में हम कुछ इस कदर खो जाते हैं कि जिन अपनों के लिए हम रात-दिन दौड़ रहे होते हैं उन्ही के लिए वक्त की कमी हो जाती है;जिस रोटी के लिए अपना गाँव,कस्बा छोड़ परदेश बस जाते हैं उसी रोटी की मिठास का अनुभव करने के लिए हमारे पास वक्त की कमी हो जाती है .इंसान कितना भी अमीर हो जाए सोने की रोटियां खा कर भूख शांत नहीं कर सकता;पंचसितारा होटल में सुख की नींद नहीं सो सकता;ये सुख उसे अपने परिवार,अपने घर में ही नसीब होता है.गहने कपड़ों का सुख भी किस काम का? जब उसे देखने तारीफ़ करने के लिए स्वजन ही ना हों और वह खुशी भी किस काम कि जिसे अपनों में ना बांटा जा सके?कभी-कभी इस भाग-दौड़ में हम उन्ही को खो देते हैं जो हमारे जीने का मकसद होते हैं.autumn

अगर आप में से कोई भी यह भूल कर रहे हों तो कृपया एक बार आत्मावलोकन करें “अतीत के झरोखों से ”

इस बेतहाशा भागती-दौडती ज़िन्दगी में,अनजाने ही जो रिश्ते छुट गए थे
भौतिक और आत्मिक सुख की जंग में,पराजित होकर भीतर से टूट गए थे
रूखे व्यवहार की बंद पडी कोठरी में,उदास हो जिन रिश्तों के दम घुट गए थे

भरोसा था उन्हें जिन मजबूत बाजुओं पे,उन्ही के हाथों बेखबर वे लुट गए थे

बिखरे पड़े उन सारे रिश्तों को लो; आज मैंने समेट लिया है…………..
अटूट बंधन की रेशमी डोर में प्यार से; उन्हें लपेट लिया है …………..

समाज की झूठी गलाकाट प्रतिस्पर्धा में ,खुद को बस भागीदार बनाती रही
मुखौटे लगे चेहरों से मिलती करती बातें,पर अपनों से सदैव ही कतराती रही
किश्तों सी बंटी अपनी ज़िन्दगी की तो,बस चुपचाप किश्त ही चुकाती रही

बेजान चीजों की अतृप्त ख्वाहिश में ,अपनी अनमोल ज़िन्दगी बिताती रही;

आज भावनाओं की दरिया को ,मैंने समंदर में मिलने दिया है…………….
अपने मकान को एक घर की सूरत में, बदलकर सजने दिया है ……………

रोज़-रोज़ की इस ज़द्दोज़हद में मेरे अपने ही, मुझसे दो बोल को तरस रहे थे
बिन सावन-भादो की आहट के ही मेघ, झम-झम,उन नयनों से बरस रहे थे
वक्त का अभाव था ऐसा कि मेरे घंटे,मिनट में, मिनट सेकंड में बदल रहे थे

आगे बढ़ आसमान की ऊँचाई छूने को, मेरे अरमान अतिशय मचल रहे थे

आज वक्त इतना अधिक है कि जैसे; मैंने इनको थाम लिया है…………..
थकती नहीं हूँ अब पहले जैसी जबकि; कितना काम किया है……….

जीवन के कीमती लम्हों को भी तो, बेहतर जीवन की मृगत्रिष्णा में झोंक दिया था
हर पल आती छोटी-छोटी खुशी को, किसी बड़ी खुशी की लालसा में रोक दिया था
लड़ते-लड़ते शोहरत की युध्भूमि में तब तो , हार से भी मैंने कहाँ संकोच किया था
अपनी पहचान,अपना वजूद ही होता है यहां ,सब कुछ इतना ही तो सोच लिया था
nest

आज मुझे वह छाँव मिल गयी जब; जंगल सारा छान लिया है……….
सिर्फ रैन-बसेरा ना रहेगा मेरा घरोंदा,ऐसा मैंने ठान लिया है…………….
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