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‘ज़िंदगी’-कैद क़ानून की किताब में ?(jagran junction forum )

V2...Value and Vision
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आधुनिकीकरण के नाम पर दो चार कदम क्या बढ़ गए

क़ानून की किताब में कैद हो कर रह गई है ये ज़िंदगी.

न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन तथा पिनाकी चंद्रा घोष की अध्यक्षता की पीठ का आठ दिशानिर्देशन के साथ का कहना है लिव-इन संबंध न कोई अपराध हैं, न पाप और संसद को ऐसे संबंधों को वैवाहिक संबंधों की प्रकृति में लाने के लिए कानून बनाने चाहिएयह घरेलू हिंसा एक्ट के तहत स्त्री सुरक्षा को मद्देनज़र रख कर कहा गया कथन है…..यह कथन अविवाहित स्त्री-पुरुष के आपसी लिव इन सम्बन्ध तक तो शायद मान्य हो जाए जैसा कि एडिशनल सेशंस जज योगेश खन्ना ने भी एक MBA युवक रवि मोहन शर्मा (जिसने अपने लिव इन पार्टनर को शादी के झांसे में रखकर उसे इस्तेमाल किया और वह गर्भवती हो गई.)के केस में कहा कि ऐसे लिव इन सम्बन्ध भविष्य के लिए स्थाई रूप से बनाये रखने के लिए इसे वैवाहिक सम्बन्ध बनाना अनिवार्य है.क्योंकि अगर कोई युवती ऐसे सम्बन्ध में प्रवेश करती है तो वह यह भविष्य में उसी युवक के साथ विवाह सूत्र में बँधने के उद्देश्य से करती है.पर इसके दुरूपयोग की सम्भावना भी बराबर बनी रहेगी जैसा कि खंडवा केस में,ओम्कारेश्वर स्थित बिजली विभाग से रिटायर व्यक्ति की पत्नी ने आरोप लगाया कि उसका पति अपना ज्यादातर वक्त लिव इन पार्टनर के साथ गुजारता है .इस पर जज श्री गंगाचरण दुबे जी के अनुसार दिया फैसला कि पत्नी,लिव इन पार्टनर समेत पति एक ही छत के नीचे रहे …विवाहित पुरुष १५ दिन पत्नी के साथ और १५ दिन लिव इन पार्टनर के साथ रहे …..इसके अलावा व्यक्ति की चल और अचल दोनों सम्पत्तियों में पत्नी और लिव इन पार्टनर का बराबर का हिस्सा भी होगा …यह सुनकर प्रत्येक विवाहिता जो विवाह संस्था और इससे जुड़े मूल्यों पर भरोसा करती है उसकी नाराज़गी और विक्षोभ लाज़िमी है. जुवेनाइल पर क़ानून बन जाने से बाल अपराध को बढ़ावा देने वाले व्यस्कों के और भी मज़बूत बन जाने की सम्भावना की तरह ही विवाह जैसी पवित्र संस्था पर ऐसा क़ानून बन जाने से भारतीय संस्कृति की आधुनिक विवाह संस्था के निहित मूल्यों के क्षरण की आशंका ….भी बन जाती है .निःस्संदेह यह समाज पितृसत्तात्मक है पर फिर भी यह अत्यावश्यक है कि स्त्री-पुरुष के आपसी मसलों से जुड़ा कोई भी क़ानून जेंडर न्यूट्रल हो..यह वाकई बहुत ही विचारणीय विषय है….

सही है….

घर को आग लग रही घर के ही चिराग से

एक पति अपनी विवाहिता और लिव इन पार्टनर के साथ रहे ….पुराने ‘रखैल’ शब्द का आधुनिक रूपांतरण लिव इन रिलेशन है…..फिर ठीक इसका विपरीत भी सही माना जाएगा कि एक पत्नी अपने विवाहित और लिव इन पार्टनर के साथ रहे …यह लव त्रिकोण को कानूनी जामा पहनाने की रस्म अदायगी हो जायेगी …..ये कैसी उदारता ?? एक विवाहिता के लिए पति का होना क्या मायने रखता है वह क़ानूनविद क्यों नहीं समझ पाते ?? क्या ऐसा कोई क़ानून नहीं जो इससे परे विवाह संस्था के पाकीज़ा मूल्यों को और मज़बूत बनाये ???हालांकि सुप्रीम कोर्ट की माने तो अगर कोई औरत जान-बूझ कर किसी विवाहित पुरुष के साथ रहे तो उसे इस तरह का कोई अधिकार ना देने की बात पर क़ानून लाने की कोशिश भी जारी है..फिर भी कुछ प्रश्न बेहद उलझे से होंगे….

1) एक पुरुष या स्त्री कितने लिव इन पार्टनर रख सकते है…एक..दो..तीन ..या फिर…और क्या इन सब को वैवाहिक दर्ज़ा दिया जाएगा ??अगर हां ,तो क्या यह आर्थिक,सामाजिक,नैतिक अवमूल्यन की शुरुआत नहीं होगी ??अगर नहीं तो फिर सम्बन्ध को लिव इन के बजाय विवाह सूत्र में ही क्यों ना रखा जाए .

२)लिव इन सम्बन्ध से जन्में बच्चों को चाहे जितनी आर्थिक सुरक्षा दे दी जाए …क्या वे परम्परागत भारतीय परिवेश में सामाजिक और

पारिवारिक सुरक्षा पा सकेंगे ??क्या ऐसे हालात में उनके विकास पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा ??

3)लिव इन पार्टनर यह भी दलील देते हैं कि वे इस तरह के सम्बन्धों में रहकर अपने भावी वैवाहिक ज़िंदगी की परीक्षात्मक जांच -परख ( trial and error )कर रहे होते हैं….अब जब इन्हे वैवाहिक सम्बन्ध का दर्ज़ा मिल जाएगा तो ऐसे trial and error उन्मुक्त और असंयम यौन संतुष्टि की प्रयोगशाला साबित ना होंगे ?हाँ यह ज़रूर है कि बगैर कोर्ट खर्च के तलाक विधि ज़रूर लागू हो जायेगी…अर्थात अब हमारा मन भर गया और हम दूसरी डाल पर अपना बसेरा बनाएंगे ….ज़िंदगी बस रैन बसेरा ही बन कर नहीं रह जायेगी??

४)राधाकृषणन जी की तरफ से यह फैसला भी तब लिया गया जब एक लिव इन दम्पति के बीच झगड़े हुए और सम्बन्ध ख़त्म होने के बाद महिला ने अपने लिए रख रखाव के खर्च की मांग रख दी .
क्या भविष्य में यह सम्भावना नहीं बनेगी कि किसी स्त्री द्वारा कोई भी धनाढ्य पुरुष लिव इन के नाम पर शोषित हो जाए….कुछ दिन,महीने,वर्ष के सम्बन्ध बना कर छुटकारा भी पा लेने की कोशिश और अर्थ लाभ की भी गलत कोशिश …..क्या यह एक व्यापार ना बन जाएगा ? आज कई क़ानून का इस प्रकार भी दुष्प्रयोग हो रहा हैं जिनमें दहेज़ सम्बंधित क़ानून,यौन उत्पीड़न क़ानून ,दलित उत्पीड़न क़ानून आदि आते हैं.

५)क्या यह आशंका नहीं कि सम्पति पर एकाधिकार की कोशिश में विवाहिता या लिव इन पार्ट्नर के तरफ से एक दूसरे पक्ष के लिए प्राणघातक योजनाएं अंज़ाम लेने लगें ??

६)एक समाज जहां आज भी विवाह पूर्व ,विवाहेत्तर या समलिंगी सम्बन्धों को मान्यता ही प्राप्त नहीं है या बहुल वर्ग की स्वीकृति ही नहीं है वहाँ ऐसे लिव इन रिलेशन पर क़ानून बना कर उसे सफलता पूर्वक लागू कर पाना किस प्रकार आसान होगा …जहां आज भी कई न्याय लंबित पड़े हैं …क्या ऐसे अमान्य सम्बन्धों की पेचीदगी अनावश्यक रूप से न्याय प्रक्रिया पर सवालिया निशाँ नहीं लगाएगी ?

ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है

कुछ दिन पूर्व ही विधवा माँ से मिल कर आई और यह कविता लिखी काश !!!!प्रत्येक विवाहित पुरुष अपनी पत्नी की नज़र में अपनी मौजूदगी के अर्थ को और स्वयं पर पत्नी के एकाधिकार को समझ कर उस भाव का सम्मान कर सके तो ना ऐसे सम्बन्ध बने और ना ही उन पर ऐसे क़ानून बने .

लोग कहते हैं..
दुनिया गोल है
माँ की दुनिया भी
नीली तो नहीं …पर हाँ’
गोल ही थी
और उसका गोलाकार होना
समाया था उनके माथे की गोल लाल बिंदी में.
सुर्ख लाल बिंदी
समेटे ऊर्जा सूर्य सी
मानो सिमटी जाती थी सारी दुनिया
उस गोलाकार छोटी सी बिंदी में

अब दुनिया…
माँ के लिए कुछ भी नहीं
क्योंकि नहीं सज पाती बिंदी
पिता के जाने के बाद
अब नहीं रहा माँ के लिए
दुनिया के होने का मायना
सूने माथे से गुम हुई बिंदी ने
ख़त्म कर दिया आदि अंत
एक बड़ी सी दुनिया का

डूब गई बड़ी सी दुनिया

पनीली आँखों के सूनेपन में


कोई गोताखोर कितना भी हुनरमंद हो
नहीं ढूंढ सकता…
वह छोटी सी बड़ी दुनिया
जानते हो क्यों ???
क्योंकि पनीली आँखें
साक्षात्कार करा देती हैं
दुःख की अथाह गहराई से
हिम्मत ही नहीं पड़ती
उस दुःख के सागर में डूबने की
अब मैं…..
और भी गहराई से

समझ पाती हूँ महत्व
उन सभी व्रत उपवास प्रार्थनाओं का
जो करती थी माँ अपनी दुनिया की हिफाज़त के लिए
मैं जानती हूँ ….
हमारी भी बड़ी सी दुनिया समाई है
माथे पर सजती छोटी सी लाल बिंदी में
बड़ी सी दुनिया का आदि अन्त
बस एक बिंदु पर .

लिव इन रिलेशनशिप की परिभाषा के अनुसार “an arrangement of living under which the couples which are unmarried live together to conduct a long-going relationship similarly as in marriage.”पर भारतीय परिवेश में जिस लिव इन सम्बन्ध की बात इस क़ानून द्वारा की जा रही है वह अत्यंत ही विरोधाभासी और वैवाहिक मूल्यों के खिलाफ होने के कारण अस्वीकार्य है.
यह लिव इन रिलेशन अगर अपराध और पाप दोनों नहीं तो व्याभिचार अवश्य है क्योंकि इसमें सिर्फ एक पक्ष पति या पत्नी की इच्छा होती है और यह इनमें से किसी एक को निश्चित ही पसंद नहीं होता …(चाहे वह पति के द्वारा लिव इन पार्टनर हो या पत्नी के द्वारा) .किसी पत्नी के लिए यह बहुत ही पीड़ादायक हो जाता है क्योंकि अधिकांशतः वे आश्रित होती हैं.यह दो व्यक्तियों की निजता का संकीर्ण दायरा नहीं बल्कि दो परिवारों उनके सम्बन्धियों तक का विस्तृत दायरा होता है…और हमारी भारतीय संस्कृति me and my family का संकीर्ण फलसफा नहीं है.एक दाम्पत्य के टूटने की गूंज दो परिवारों के कान भेद देती है….इसके बिखरे कांच कई की आत्मा घायल कर देते हैं जिसमें मुख्यतः माता- पिता होते हैं.लिव इन रिलेशन में पति पत्नी की आपसी सहमति हो ही नहीं सकती क्योंकि पत्नी अपने पति के प्यार को किसी के साथ बाँट नहीं सकती.

आर्थिक संतुलन के लिहाज़ से दो को साथ रखना बेहतर है या तीन यह तो अर्थशास्त्र का अ ना जानने वाला भी बखूबी समझ सकता है.आर्थिक तकाज़ा ‘ हम दो,हमारे दो’ का है…नैतिक तकाज़ा ‘प्रेम गली अति सांकरी जामें दो ना समाय’ का और सामाजिक तकाज़ा ‘एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकतीं का है.यह सिर्फ दैहिक आकर्षण का मामला है…लिव इन रिलेशन और उससे जुड़े क़ानून की कभी ना ज़रुरत थी और ना रहेगी…पहले ऐसे सम्बन्धों को हवा दो फिर उनके संरक्षण के क़ानून बनाओ ऐसा मकड़ जाल ही क्यों बनाना !!!

“It’s better to have a live-in relationship rather then having a divorced life!”
यह विश्व के अन्य किसी भी देश के लिए हो सकता है पर भारत देश में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता.और हाँ, जो देश ऐसे सम्बन्धों को मान्यता देते हैं उनके यहाँ भारत वर्ष के सस्कारों जैसी मूल्यों की जड़ें गहराई से समाई नहीं होगी .

ये सही कहा गया है “Happiness in marriage is not so much FINDING the right person as BEING the right person.”
आज गाँव से कई युवक शिक्षा ,रोजगार आदि के लिए शहर की तरफ पलायन कर जाते हैं…आर्थिक रूप से कमजोर मज़दूर वर्ग अपनी पत्नी को शहर नहीं ले जा पाते …ऐसे में कब उनकी रिक्तता लिव इन पार्टनर से भरने लगती है उन्हें आभास नहीं हो पाता पर ऐसे में परेशानी तीनों को उठानी पड़ती है.कई स्त्री-पुरुष आदतन जीवन मूल्यों के अभाव में असंयमी बन ऐसे सम्बन्ध बना कर रहने लगते हैं…परन्तु वज़ह कोई भी हो ….. लिव इन रिलेशन में लिव इन पार्टनर को पत्नी की तरह अधिकार या आर्थिक अंश देने वाले क़ानून के बन जाने से नैतिकता का जो अल्पांश भय भी समाज में बचा है वह आर्थिक सुरक्षा के संरक्षण के तले दम तोड़ देगा…पारिवारिक तनाव बढ़ जाएंगे ..सामाजिक विघटन को रोकना मुश्किल होता जाएगा और इस विषय पर सिर्फ क़ानून की भूल-भुलैया या विरोधाभासी प्रावधान उभर कर एक के बाद एक सामने आते रहेंगे.

मेरी प्रत्येक दम्पति से गुज़ारिश है कि इतिहास से सबक ले और ऐसे किसी भी लिव इन रिलेशन को खारिज़ करे , …..रुक्मिणी का दर्द किसी की लेखनी का हिस्सा भले ना बना हो पर आज की विवाहिता अपने पति के जीवन में किसी अन्य की उपस्थिति की कल्पना मात्र से सिहर जाती है.उसे अपने पति पर इस कदर भरोसा होता है….

हम दो मस्त पंछी ..

विचरें स्वच्छ नीलाकाश में

जब भी पड़ें कमजोर मेरी पाँखें

तुम्हारे मज़बूत डैने दें मुझे सहारा

कितनी आश्वस्त हो जाउंगी मैं…

और फिर

कितना आसान

कितना सरल

हो जाएगा
समेटना हम दोनों को

अपने हिस्से का आसमान.

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