- 259 Posts
- 3039 Comments
कल की बस्ती जब से शहर हो गई
तब से मैं भी नदी से नहर हो गई
रोज़ कुछ न कुछ लिखती हूँ ..अक्सर .सोचती हूँ ईश्वर से बड़ा लेखक कौन है…इतनी कहानियां ..इतने नाटक..इतनी कविताएँ …सब एक दूसरे से ज़ुदा …क्या वह कभी नहीं थकता…रोज़ नई कहानियां …नए संस्मरण लिखता ही जाता है…इतना ही नहीं पहले से लिखे में और भी जोड़ता जाता है..
जब हम बच्चे किशोर या युवा होते हैं तो ज़िंदगी बड़ी रूमानी लगती है पर उम्र बढ़ते ही .ज़िंदगी की उधड़ी हुई सच्चाईयों से परिचय होने लगता है…दिल चाहता है अपने अनुभव पूरी ईमानदारी से सब को लेखनी के माध्यम से बाँट दूँ…लिखती भी हूँ …कभी नग्न सत्य तो कभी प्रतीकों में सत्य उड़ेलने की कोशिश करती हूँ…कल्पना से सत्य ज्यादा मुखर होता है…मेरे लिए लेखन का एक उद्देश्य है…सच्चाई पर पडी धूल को साफ़ कर देना..मेरी लेखनी मुझसे ज्यादा मज़बूत है …यह मुझे वही बना रही है जैसा मैं बनना चाहती हूँ .लेखन में जब ईमानदारी नहीं तो यह आडम्बर के सिवा कुछ भी नहीं ….पर सच्चे लेखन की कीमत भी भरपूर चुकानी पड़ती है…हम स्वयं को सच कहते हैं…दुनिया हमें बागी सरफिरे कहती है.उँह !!!! इंसान भी किन किन गलतफहमियों में ज़िंदगी गुज़ार देता है…पिछले कुछ वर्षों में मैं थोड़ी परिपक्व हो गई ….मेरी लेखनी थोड़ी समझदार हुई …अब हड़बड़ाहट नहीं …बेचैनी नहीं…ठहराव है…वक़्त को लेखनी में बांधने की सनक तो है पर उतावलापन नहीं …जानती हूँ जो नहीं लिख पाउंगी उसे दुनिया पूरा कर देगी …
.बचपन के रिक्त स्थान भरो …..के प्रश्नों की तरह ….जब तक दिल दिमाग चैतन्य है तब तक तो प्रवाह बना रहे ….
जब कोई बात समझ में ना आये तो उसे ईश्वर का सन्देश मान कर स्वीकार कर लें .शायद वह हमसे कुछ अन्य महत्वपूर्ण काम करवाना चाहता है .समय का सदुपयोग और जीवन के मायने दोनों को समझ कर शांत मन से अपनी ज़िंदगी के प्रत्येक लम्हों को सहेजें.
1) ज़िंदगी चाय की प्याली है
.हर सुबह …
स्त्री बनाती है चाय
पुरूष पूछता है
क्या कर रही हो
वह कहती है
‘ जिंदगी छान रही हूँ ‘
चाय सा दुख
पी जाऊंगी
चायपत्ती सा सुख
मिट्टी मेें डाल दूंगी
ताकि पौधों के रूप में
सुख कुदरत मेें बंट जाएं
पुरुष हंस कर कहता है
सच..
बात तुम्हारी निराली है
‘ जिंदगी चाय की प्याली है ‘
क्या समझ पाएगी स्त्री
इस हंसी के रहस्य को
जबकि अक्सर ही रखा
छुपा पुरुष ने अश्क़ को .
2) प्रश्न पूछिए
चुप्पी तोडिये
प्रश्न पूछिए
स्वयं से भी
और औरों से भी
नकारिये गलत को
यही एक विकल्प है
समाज को सही दिशा में
ले जाने का
अँधेरा इतना घना
ज़रुरत है कि
चटक हो
रोशनी का विश्वास
आओ बदल दें
सोच को सच्चाई में .
3) यकीन करना
दिन चाहे कितना भी रोशन कर लो
रात अंधेरी ही होती है यकीन करना
ये लाव लश्कर और ये लोगों का हुजूम
बेचैनी अकेली होती है यकीन करना
तन्हाईयाँ जब टकराती दीवारों से
सदा हमारी होती है यकीन करना
आवाज़ करती नहीं दीवारें किले की
भुरभुरा कर गिरती है यकीन करना
घड़े कभी रुके नहीं रहते पनघट पर
प्यास सबको लगी होती यकीन करना
छनक पायल की ना चूड़ी की खनक
दौड़ती बहू भी सोती है यकीन करना
बदल जाते हैं दीवारों पर लगे इश्तहार
हर शय की उम्र होती है यकीन करना
हैं मोड़ कई कोई आएगा कोई जाएगा
गली वहीं टिकी होती है यकीन करना .
4) पुरूष होने का अर्थ
जिम्मेदारियो की दहलीज पर
पुरूष खड़े हैं इस उम्मीद में
कोई लेखनी तो होगी जो
दर्द उनका बयां कर जाएगी
नारी होने का अर्थ
है सबकी सोच का विषय
पुरूष होने का अर्थ भी
क्या पूछा किसी ने कभी
मजदूर हो या अधिकारी
अनगिनत सपने लिए
रोज सुबह निकलता घर से
पीछे अनगिनत चिंताएं
कमरे की खिड़की पर छोड़
मशीन /लैपटॉप पर उंगलिया
और मस्तिष्क में
जिम्मेदारियो की फेहरिस्त
जोड़ घटाव गुणा भाग मेें
जिंदगी गणित सी निकल जाती है
पुरूष होने का अर्थ समझ पाते
उनका भी दर्द कभी देख पाते ।
5) रीढ़विहीन लोग…रेंगता समाज
जब भी देखती हूँ
ज़मीन पर
रेंगते हुए समाज को
कोई आश्चर्य होता नहीं
जानती हूँ
रीढ़विहीन लोगों ने
कर दिया है
समाज को रेंगने पर मज़बूर
सीधे खड़े हो कर चलने वाले भी
टकरा कर गिर पड़ते हैं
रीढ़विहीनों ने
नहीं छोड़ी कोई जगह
जहां रीढ़ की हड्डी वाले
खड़े भी हो सकें
समाज भी हो गया है आदी
अब उसे रीढ़विहीनों के बोझ से
नहीं होता कोई दर्द
अब उसे रेंगना ही
बहुत अच्छा लगने लगा है .
Read Comments