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हर धर्म मे विस्वाश

छोटी छोटी सी बाते
छोटी छोटी सी बाते
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बेसक मै हिन्दू हु,

मंदिर जाता हु,

पर मस्जिद पे भी,

अपना शीश झुकता हु,

बेसक मै हिन्दू हु,

हिंदुत्व   मे  जन्म  लिया  हु,    

गुरूद्वारे और चर्च मे  भी,

इस्वर को ही तलाशता हु,

ये मेरा हर धर्म मे  विस्वाश,

या आस्था ही नहीं,

दरअसल मै एक ही इस्वर मे

मानता  हु.

कल मै काम पे निकला रश्ते से ऑटो ली,रोज की तरह कुछ दूर चल कर गुरुद्वारा आया, और मैंने अपना शीश झुका दिया, करीब १५ मिनट बाद रश्ते मे एक मजार पड़ी मैंने वहां भी अपना शीश झुका दिया, इस पर ऑटो वाले ने सामने के सिशे मे कुछ अजीब नजरो से मुझे देखा, इतनी ही देर मे रश्ते पर बजरंगबली का मंदिर भी आ पड़ा और मैंने हमेशा की तरह वहां भी सर झुका दिया, पर ये बात ऑटो वाले से हजम नहीं हुई और वो पूछा- सर आप किस धर्म के है?  मै उसके अहसास को समझ गया था और मैंने कहा मै हर धर्म मे मानता हु और थोडा आगे चलो चर्च भी है.

ये वाक्यांश मेरे दिल के बहुत करीब है क्युकी हर धर्म एक ही है पर हमने ही उनके लताये फैला दी है और ये कोई गलत बात भी नहीं पर इसके वजह से भेदभाव होना ये सही नहीं. एक मुसलमान की कुरान और एक हिन्दू की गीता नहीं है ये समस्त मानव जाती के लिए है . पर  हमने  जो  ये  तोते  की तरह  सामाजिक  होने  की  रट  लगे  है  इससे   हम  बहार  नहीं  आ पा  रहे  और  इन  सरहदों  की  लड़ाई  मे  फस  पड़े  है , कही  न  कही  हम  सब  चाहते  है  की  इस  तरह  की  चीजे  न  हो  सभी  प्रेम   से  रहे  मिल  जुल  कर  रहे  होली  मे  एक  रंग  हो , ईद  मे  एक  ही  सेमई,  जो  हम  साथ   मे  बाटे  पर  बस  दिखावे  के  लिए  नहीं . अपने   लिए  धर्म  के  लिए.

 प्रेम के दरवाजे पर,

तो हर कोई खड़ा होता है,

बस बाहर नहीं निकल पता,

आजाद घूम नहीं पाता,

बंदिशों की इस लड़ाई मे,

वो बस अकेला ही रह जाता है,

अकेला ही रह जाता है,

नींद  तो करवटों  की मोहताज  है,

सांसो  की,

सपनो  की,

पर हम  तो जाग कर  भी  नींद  मे है,

धर्म  की पूजा  नहीं,

अवेहलना  की है बस,

धर्म  बटवारा  नहीं,

प्रेम मांगता  है,

सच  जनता  है,

एक  ही खून  से  सीचा  जाता है,

तो फिर  ये  रोड़े  कैसे? 

दिवार  कैसे?

सरहद  कैसे?

एक अंकल जो रोज गीता पढ़ते थे, एक दिन अपनी लड़की की शादी उसके पसंद से करने की वजह पर अड़ गए खूब हाय तोबा की, मैंने उनसे फुर्सत मे पूछा की गीता की एक सूक्ति क्या है? जो उसका मर्म भी कही जा सकती है, इस पर अंकल जी थोड़ी देर विचार करके बोले हर जगह इस्वर है और इस्वर की न सुनी तो बस वो भूचाल लाता है.

 मै मुस्कुरा उठा और बोला अंकल आप तो रोज गीता पढ़ते हो पर एक मर्म नहीं समझ पाए, उन्होंने आवाज मे आवेग लाकर कहा की क्या मर्म है मैंने कहा:

“परिवर्तन ही दुनिया का नियम है”  

कही  कोई  गोरा  है,  

तो  कही  काला,  

कही  परिवर्तन  का  ज्वालामुखी  फुटा  है, 

तो  कही  अधूरी  सोच  का  प्याला.

मेरा  उन्हें  नीचा दिखाने  का  मकसद  नहीं  था,  बस  मै  ये  चाहता  था  की  आप  जो  भी  करते  है  उस  का  मकसद  साफ़  हो  क्युकी  गीता पढने से कुछ नहीं होगा, और पढ़ लिया तो अपने लिए कुछ खाश समझ लेने से कुछ नहीं होगा, सत्य को जानने मे और अमल करने मे ही भलाई है. घर मे गीता या कोई भी धार्मिक किताब रखने से कुछ नहीं होगा उसे पढना पड़ेगा समझना पड़ेगा और वास्तविकता को जानना   पड़ेगा. कोई  धार्मिक  किताब  सिर्फ  उम्र दराज   के  लिए  हो  ये  भी  सही  नहीं  वो  सभी  युवाओ  के  लिए  भी  है, आपके  मन  की  हर  प्रश्न  का  जवाब  आपको  वही  मिलेगा. जिस  तरह   से  हमने  नए  समाज  के  परिवेश  को  तकनिकी  को  अपनाया  वैसे  ही  हमें   अब  नयी  सोच  को  अपनाना  होगा  समझना  होगा और ये शुरुवात मेट्रो की तरह सिर्फ बड़े शहरो  से नहीं होनी चाहिए बल्कि भारत के प्रान्त-प्रान्त मे होनी चाहिए.

समझ  नहीं  सका  हमरे  अहसास  को  कोई,

कोई  कमी  हम   में  तो  नहीं, 

या  तरक्की  की  इस  सड़क  पर, 

कही  हम  दो  मुहे  तो  नहीं ?

“समाज मे ऐसा नहीं होता” ये कह कर आप नहीं बच सकते, “ये हमारी परम्परा है” ये भी नहीं, अरे बनाना है तो दिल्ली के चांदनी चोंक जैसा बनो जो हर धर्म को अपने अन्दर समाये हुआ है.कहने का तात्पर्य इतना है की दिल्ली का चांदनी चौक एक   ऐसा इलाका है जहाँ हर धर्म के स्तम्भ पाए जाते है, मंदिर, मस्जिद ,गुरुद्वारा, चर्च, जैन मंदिर आदि. ये भी  ज्ञान  की  बात  थी,  मै  कई  बार  वहां  गया  पर  ये  बात  कभी  नहीं  समझा,  पर  एक  लेख  पढ़  कर  मुझे  ये  जानकारी  हुई  जो  मैंने  प्रस्तुत  की. पर  क्या  हमारी सोच  मर  गयी  है  या हम   बेसोच  हो  गए  है  न  जाने  कितने  लेख , किताबे  और  लोग  आये  उन्होंने  हमें  न  जाने  कितनी   एकता  के  पाठ  पढाये  पर  हुआ  कुछ  नहीं.

 भाति-भाति के लोग है,

पृथक-पृथक उनकी सहूलियत,

कही धुल मिटटी की चादरे है,

तो कही मखमली गद्दों के बिस्तर,

कही धुप मे जलते शरीर की नुमाईस  है,

कही सिल्क मे लिपटे गोरे बदन की नजाकत,

कही बुढापे का  टूटता मंजर है,

तो कही मौत को मुह चिढाती हुई सूरत,

सोते-सोते से लोग है,

खत्म  हुई  इंसानीयत,

अब सोचने  का फायदा  क्या?

 जब  मर  गयी  सहूलियत,

 जब  मर  गयी  सहूलियत.

क्या  सच  मे  समय  ख़त्म  है  या  अब एक शुरुवात, क्यों लड़ते है हम? अरे हम तो अपने धर्म मे भी जातो का बटवारा रखते है, आखिर ये इंसान कब जानेगा की प्यार से भी देश चल सकता है. पर  ये  भेद  भाव  के  चादरे   ओढ़े  लोग  क्यों  नहीं  समझते  की  हमें  बस  शांति  ,भाई  चारा  और  प्रेम   की  लालसा  है   न  की  मखमली  बिस्तर की, धर्म  का  मार्ग  तो बस  प्रेम  से  ही  बनता  है.

 एक मैदान जहाँ पर कुछ बच्चे खेल रहे थे, वहां  दो ग्रुप के बच्चे थे, दूर से तो पता नहीं चल रहा था पर करीब से देखा तो कुछ बच्चे सर पर सफ़ेद टोपी लगाये थे अब मै समझ गया था की कॊन किस धर्म का है. वो अलग अलग खेल रहे थे पर मै ये नहीं समझ पाया की बच्चो मे ये भेदभाव क्यों आ गया, उन्हें किसने ये समझा दिया कोंन हिन्दू है और कोंन मुस्लिम. अगर हम अभी से चेत जाये और अपने बच्चो को कम से कम इससे दूर रखे तो शायद आगे हमारी नस्ल प्रेम और प्यार से रहे, पर ये  हम सबको सोचना होगा, मिलकर सोचना होगा,

क्युकी मै नहीं चाहता की हिन्दुस्तान मे एक और पाकिस्तान बने.

क्यों  रूठ  गयी  साथ  की  लालसा  हमसे, 

क्यों   छुट  गयी   दोस्ती  की  मर्यादा  हमसे,

हम   तो  एक  ही  खुद  की  परवरिश  थे, 

फिर  क्यों  बनती  गयी  सरहदे   हमसे, 

  जा  रहा  हु, 

बस  एक  जवाब  पाने  के  लिए, 

उम्मीद  बरकरार है मेरी, 

मौत  के  आने  से  पहले.

 

इस  लेख  से  मै   किसी  धर्म  या  जाती  को   ठेस   नहीं  पहुचना  चाहता  ये  मेरी  भावना  मात्र  है  जो  मैंने  प्रस्तुत  की  है  सम्पूर्ण  लेख  मेरे  द्वारा  ही  लिखा  गया  है. सिर्फ हिन्दू  या मुस्लिम की बाते है ये न माने. ये सिर्फ  उदाहरण मात्र है, मै दुनिया के सभी धर्मो की बात की है.

यतीन्द्र पाण्डेय

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