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देश के अरमां आंसुओं में बह गए

kahi ankahi
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मैं साहित्य नहीं चोटों का चित्रण हूँ
आजादी के अवमूल्यन का वर्णन हूँ
मैं दर्पण हूँ दागी चेहरों को कैसे भा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ


डॉक्टर हरिओम पंवार जी के शब्दों से शुरू करते हुए ………………………


जिस देश को उल्टी सीधी , फटी हुई आज़ादी किसी और के रहमो करम पर मिली हो , जिस देश का प्रथम प्रधानमंत्री सिर्फ एक व्यक्ति की जिद पर बना हो , जिस देश की जनता और जनता के प्रतिनिधियों की आवाज़ को सिर्फ एक व्यक्ति को , व्यक्ति विशेष को प्रधानमन्त्री बनाने के लिए दबा दिया गया हो, उसके आज के हालत कैसे होंगे ये हम और आप बखूबी जानते हैं ! पहेली नहीं बुझा रहा हूँ मैं ! सरकार बनाने में जिन 26 लोगों का वोट आवश्यक था उनमें से 19 लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत वर्ष का प्रथम प्रधानमन्त्री बनते हुए देखना चाहते थे किन्तु राष्ट्रपिता महत्मा गांधी जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे और इसी कारण सरदार साब को अपनी दावेदारी वापस लेनी पड़ी ! और हमें मिला एक रईस , भारत से अनभिज्ञ , और अंग्रेज़ों का चापलूस प्रधानमंत्री ! वो व्यक्ति जो गुलामी के शाषण काल में भी रहीस था , बाद में भी रहा ! वो व्यक्ति जिसको ये नहीं पता था कि भारत में लोग रहते कैसे हैं ? वो व्यक्ति , जो इंग्लैंड में पढ़ते हुए और हिन्दुस्तानियों को देखकर अपने पिता को ये लिखता था कि पिता जी यहाँ और भी हिंदुस्तानी आ गए हैं जिनसे मुझे नफरत है ! वो व्यक्ति जिसकी गर्मी की छुट्टियां स्विट्ज़रलैंड में गुजरती थीं , वो व्यक्ति जिसको जैल में भी पूर्ण सुविधा मिलती थी ! ओह ! शायद देश का दुर्भाग्य पहले दिन से ही शुरू हो चला था !


अब भी रोज़ कहर के बादल फटते हैं झोंपड़ियों पर

कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर

अब भी महलों के पहरे हैं पगडण्डी की साँसों पर

शोकसभाएं कहाँ हुई हैं मजदूरों की लाशों पर

निर्धनता का खेल देखिये कालाहांडी में जाकर

बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुलाकर

यहाँ बचपना और जवानी गम में रोज बुढ़ाती हैं
माँ , बेटे की लाशों पर आँचल का कफ़न उढाती है


आज आज़ादी के 66 वर्ष के बाद जो कुछ हालात हैं शायद कहने की आवश्यकता नहीं ! जो लोग उस दिन पैदा हुए होंगे उनमें से बहुत से बूढ़े होकर रिटायर्ड हो गए होंगे , कुछ व्यवस्था को कोसते हुए भगवन तक भी पहुँच चुके होंगे ! लेकिन बदला क्या ? पीढ़ियां बदल गयीं , दुनिया बदल गयी ! रस्ते बदल गए , रस्मो रिवाज़ बदल गए लेकिन नहीं बदला तो हिंदुस्तान का दिमाग नहीं बदला ! हिंदुस्तान का चेहरा नहीं बदला ! राज करने वाले नहीं बदले , भारत को चलाने वाले नहीं बदले ! तब भी भारत गरीब था आज भी गरीब है ! मुझे याद आता है अजय देवगन और आमिर खान की फ़िल्म “इश्क ” का एक संवाद ! जिसमें दो दोस्त एक दूसरे से बीस साल बाद मिलते हैं और एक दूसरे से कहता है तू आज भी नहीं बदला ! तू पहले भी काला था और आज भी काला है ! भारत , सच में तू आज भी काला है मेरे मुल्क ! बदला है तू ! पहले तू कितना शांत था , महिलाओं की इज़ज़त करता था ! ऋषियों मुनियों का सम्मान था तेरे अंदर लेकिन अब तू बाजार बन चूका है , बलात्कारियों और अपराधियों का अड्डा बन गया है तू मेरे वतन !

डॉक्टर हरिओम पंवार जी के शब्दों में :


मन तो मेरा भी करता है झूमूँ , नाचूँ, गाऊँ मैं
आजादी की स्वर्ण-जयंती वाले गीत सुनाऊँ मैं
लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँ मैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तयकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे, अपने लेकर बैठा हूँ
आजादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ


आज आज़ादी के 66 वर्ष गुजरने के बाद भी वही परिवार तुझ पर राज करने को आतुर हैं ! तू नहीं चाहता कि तेरा ही कोई पुत्र , तेरा ही अंश , तेरा ही कोई जो तेरी माटी में पैदा हुआ हो , तुझमें पला बढ़ा हो , तेरी मिटटी में ही जिसने अपनी जवानी को सींचा हो ! जो तुझमें हो और तू उसमें हो ! जिसको तेरी इज़ज़त और आबरू से मतलब हो !जिसे तेरी करोड़ों की संतान कि फ़िक्र हो ! क्या तू आज भी अपने मानस पुत्र को नहीं चाहता ? क्या तू आज भी गुलाम है या तेरी सोच गुलाम है ? क्या यार ? जिस वंश को इस मुल्क पर 60 साल गुजर गए राज करते करते और तुझे पेट भर कर रोटी भी नहीं दे पाये वो लोग तुझ पर फिर अधिकार चाहते हैं और तू फिर उन्हें अपना हुक्मरान देखता है ? फिर उन्हें हुक्मरान बनते हुए देखना चाहता है ? जिन्दा है तू ? अगर जिन्दा है तो जिन्दा होने जैसी सोच दिखा मेरे मुल्क ! अब तक तुझे लूटते रहे हैं और कितना लूटेगा तू अभी ? स्विस बैंक भर दिया ,आतंक हर ओर दिखाई देता है ! लोकतंत्र का मंदिर अब अपराधियों का अड्डा बन गया ! कब सोचेगा तू ? या सोच गुलाम है तेरी ? तू इसे लोकतंत्र कहता है ? कहता रह ! कहता रह और जपता रह ! कहता रह कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं , मौज मनाता रह , खुश होता रह ! लोकतंत्र नहीं ये भीड़ है , मूर्खों की भीड़ और भीड़ न कुछ जानती है न समझती है ! भेड़ों की भी भीड़ होती है , बकरियों की भी भीड़ होती है !

डॉक्टर हरिओम पंवार जी के ही शब्दों में :


मै गरीब के रुदन के आंसुओ की आग हूँ, भूख के मजार पर जला हुआ चिराग हूँ|
मेरा गीत आरती नही है राज पट की, जगमगाती आत्मा है सोये राज घट की|
मेरा गीत झोपडी के दर्दो की जुबान है, भुखमरी का आइना है, आंसू का बयान है|
भावना का ज्वार भाटा जिये जा रहा हू मै, क्रोध वाले आंसुओ को पिए जा रहा हू मै|
मेरा होश खो गया है लहू के उबाल में, कैदी होकर रह गया हू, मै इसी सवाल में|
आत्महत्या की चिता पर देख कर किसान को, नींद कैसे आ रही है देश के प्रधान को||
सोच कर ये शोक शर्म से भरा हुआ हू मै, और मेरे काव्य धर्म से डरा हुआ हू मै |


इसी लोकतंत्र को शुरू हुए 63-64 साल हो गए और आज इसी लोकतंत्र के मंदिर में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए हजारों अपनी अपनी जोर आजमाइश में हैं ! इनमें वो भी हैं जिन्होंने न जाने कितनों की इज़ज़त पर हाथ डाला होगा , वो भी हैं जिनके हाथ किसी के खून से रँगे होंगे , वो भी हैं जो कभी स्मगलर और चोर रहे होंगे और वो भी हैं जिनके माँ बाप , भाई बहन , चाचा ताऊ , दादा दादी , नाना नानी कभी भारतीय राजनीती में रहे होंगे, अब अपने लिए इसे मुफीद बना रहे होंगे ! इससे बढ़िया धंधा और कहाँ ? अब ये सब धीरे धीरे माननीय हो जायेंगे और हमारे लिए (अपने लिए नहीं ) कानून बनाएंगे ! गन्दा है पर धंधा है ये ! चोखा धंधा ! 1 के 1 करोड़ ! बढ़िया इन्वेस्टमेंट ! आज तक हमें रोटी देने के लिए वोट मांग रहे हैं ! क्या बात है ! युवराज बूढ़ा हो चला लेकिन वो और उसका शाषण गरीब भारतीय को आधी से पूरी रोटी नहीं दे पाया , भरपेट भोजन तो शायद स्वप्न रहे या फिर 66 साल और लग जाएँ ? ये कैसी आज़ादी है जिसमें हम आज भी रोटी के लिए तड़प रहे हैं और युवराज बाहें चढ़ा चढ़ाकर हमें एक पूरी रोटी दिलाने का ख्वाब दिखा रहा है !


चुनाव में अब न मेरी न तेरी बात करता है कोई
बस यही कहता है मैं रोया , मेरी माँ रोई !


आज हमें देने के लिए कुछ नहीं तो सिर्फ अपनी कहानी कहता है वो , अपनी दादी की , माँ की कहानी कहता है वो ! हमें आंसू दिखाता है लेकिन हमारे आंसू नहीं देखता ! युवराज आपकी माँ बीमार होती है तो तुरंत खबर बनती है और माँ अमेरिका पहुँच जाती है अस्थमा के इलाज़ के लिए , लेकिन मेरी माँ सहित ऐसी हज़ारों , लाखों माएं हैं जिन्हें सरकारी एक गोली भी नहीं मिल पाती कि उन्हें कुछ देर आराम आ जाए ! युवराज हम तुम्हें और तुम्हारी माँ को प्यार कर सकते हैं किन्तु हम तुम्हारे आंसुओं को देखकर अब पिघल नहीं सकते , माफ़ करना युवराज हम इन आंसुओं के बदले वोट नहीं दे सकते क्यूंकि हम जानते हैं तुममें 126 करोड़ लोगों को सम्भालने की बुद्धि और समझ नहीं है , क्योंकि हमें तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं है , क्योंकि हमें डर है कि तुम हमारे देश को स्विस बैंक में गिरवी रख दोगे , क्यूंकि हमें डर है कि तुम भारत को सम्भाल नहीं पाओगे ! इसलिए युवराज आंसुओं से हमें बहलाना बंद करो और बेहतर ये हो कि अपना घर बसा लो ! तुम्हारे अंदर वो हिम्मत और बुद्धिमत्ता नहीं कि तुम देश चला सको ! हम तुम्हें प्यार करते हैं क्योंकि तुम इंदिरा के नाती हो , राजीव गांधी के बेटे हो किन्तु हम वोट नहीं दे सकते तुम्हें ! माफ़ करना ! इन आंसुओं के फेर में हम कई बार धोखा खा चुके हैं अब ये आंसू बनावटी लगते हैं ! ऐसा लगता है हमारे आंसुओं की कीमत तुम नहीं जानते और तुम्हारे आंसू सिर्फ वोट के लिए हैं !


चुपके-चुपके रोया होगा संगम-तीरथ का पानी
आँसू-आँसू रोयी होगी धरती की चूनर धानी
एक समंदर रोयी होगी भगतसिंह की कुर्बानी
क्या ये ही सुनने की खातिर फाँसी झूले सेनानी
जहाँ मरे आजाद पार्क के पत्ते खड़क गये होंगे
कहीं स्वर्ग में शेखर जी के बाजू फड़क गये होंगे
शायद पल दो पल को उनकी निद्रा भाग गयी होगी
फिर पिस्तौल उठा लेने की इच्छा जाग गयी होगी !!


जय हिन्द ! जय हिन्द की सेना !

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