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तुम पुकारती रहो

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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आया नहीं मै जानकर,
कि तुम पुकारती रहो,
नैनों में आँसू भर के,
यादों को सँवारती रहो!

समझा लिया मन को कि,
तुम ना हो खडी़ राहों में,
आशा नहीं मेरे इंतजार का,
आज ना हो तुम मेरी बाहों में!

आया ना ख्वाबों में भी इस बार,
कि तुम रात जग के गुजारती रहो!

आया नहीं मै जानकर,
कि तुम पुकारती रहो!

कब से जिन्हे ना सुन पाया,
जिस प्रेम से तुमने बुलाया,
चाहा कि अब जिद छोड़ दूँ,
राहों को अपने मोड़ लूँ!

पर क्या करुँ आ ना सका,
कि तुम बाट निहारती रहो!

आया नहीं मै जानकर,
कि तुम पुकारती रहो!

छलक आये उर के प्यार,
यूँ नैनो में दो बूँद बन के,
नैना तो बरसे,गला भी भर गया,
पुकारना तेरा इक गुँज बन के!

ठोकर पडा़ यूँ गिर गया,
कि तुम सम्भालती रहो!

आया नहीं मै जानकर,
कि तुम पुकारती रहो!

क्यों तुमको मैने रुला दिया,
ये सोच के मन घबराया है,
सीमाओं में क्यों प्यार बँधा,
मेरा प्यार तुने ठुकराया है!

यादे रह-रह कर बीते दिनों की,
किस्से क्यों दुहराती है,
अमर कहानी प्यार की हमारी,
कि तुम सुनाती रहो!

आया नहीं मै जानकर,
कि तुम पुकारती रहो!

मेरा छिपना,तुमको रुलाना,
कुछ देर में फिर बाहर आना,
करना वही फिर से बहाना,
तेरा रुठना और मेरा मनाना!

थम गया बस याद कर के,
कि तुम भी याद करती रहो!

आया नहीं मै जानकर,
कि तुम पुकारती रहो!

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