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कवि की इच्छा

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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कुछ ऐसी लिखने की इच्छा,
दिल में अब भी दब जाती है।
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मेरी कलम अब भी न जाने क्यों?
तुम पर लिखने से कतराती है।

मेरी भावनाएँ क्यों सोच तुम्हे?
कुछ कहते कहते रुक जाती है।

संवेदनाएँ बहते बहते ही,
खुद में ही जम सी जाती है।

जब कभी चाहा मैने तो आज,
इक गीत तुम पर लिख ही दूँ,
कुछ सुनु और कुछ गाऊँ भी,
जीवन से विमुख,तेरा रुख लूँ।

तब तब मेरी ये इच्छाएँ,
रह जाती है क्यों यूँ अधूरी,
तुम पर लिखने की आशाएँ,
किन बाधाओं से है जुड़ी।

तेरे पर कलम चलाना,
क्या इतना दुर्लभ सा है,
तु संगरमरमर का कोई पत्थर,
मेरी कलम को क्या पता है।

तु बहती धारा गँगा की,
तु चाँदनी है रातों की,
तुम पर कहना,लिखना तो,
पहचान है मेरी मूर्खता की।

तु शब्द में कैद हो जाये,
ऐसा कैसे सम्भव है,
तु गीतों में बस जाये मेरे,
ये तो तेरा ही मन है।

पर कवि की इच्छा अब भी,
क्यों देख दिल में दब जाती है,
जब गीत बनाने की बारी,
तुम पर ही आ रुक जाती है।

मैने लिखा है भावों पर,
संवेदनओं पर,कुंठाओं पर,
हर्ष पर,विषाद पर,
और मँजिल पर राहों पर।

पर पता नहीं तु इनमे कौन?
जिस पर लिखने से ये लेखनी मौन।

क्या करुँ,क्यूँ मै अब पछताऊँ?
कैसे तुझको ये समझाऊँ।

जीवन है अधूरा मेरा,
जो तुम पर लिख न पाऊँगा,
उस रोज मिलेगी संतुष्टि,
जब गीत तुम पर ही बनाऊँगा।

वरना इच्छा ये कवि की,
अंतिम इच्छा बन जायेगी,
जीवन की सारी काव्य कृतिया,
मुझे असहाय नजर आयेगी।

कवि के आँसू पन्नों से,
तेरे मर्म को छू लेगा तब,
कवि की इच्छा जो अधूरी ही,
तोड़ लेगा तेरी बाहों में दम जब।

मेरी कविताएँ ही तो मेरा,
मान है,अभिमान है,
तुम पर लिखने की इच्छा,
मेरी विवशता की पहचान है।

लिखने दो अब अंतिम घड़ी,
अंतिम गीत ये जीवन का,
तुम पर लिखी ये पंक्तियाँ,
मेरी इच्छाओं और जतन का।

मै तो अब तक बस लिखता था,
इधर उधर की ही बाते,
तुम पर जो लिखा तो जाना हूँ,
क्या होती है खामोशी और सन्नाटे।

इक गीत मौन का तुम हो,
जो कलम ने मेरी लिख डाला,
सुनना चाहों तो सुन लो सभी,
मेरी इच्छाओं की स्वरमाला।

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