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भूतनी मेरे ख्वाब में आकर

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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सन्नाटे की खामोशियों में,
रात का अँधेरा कुछ कहता है,
पायल से निकलती घुँघरु की आवाज,
जब भयभीत मन को करता है।

जब रात के अँधेरे में,
सुनसान,अजनबी राहों पर,
कोई परछाई दिख जाता है,
जब साथ ना हो कोई घर में,
एकांतपन खुब सताता है।

जब रात का भयावह अँधेरा,
फिर चाँद से जीत जाता है,
आसमां से छत पे आता,
कोई साया भी दिख जाता है।

जब लाख जतन करने पर भी,
रोशनी कमरे का गुल हो जाता है,
जलती मोमबती भी हवा के वार से,
फूँके बिना ही बुझ जाता है।

तब डर डर के भयभीत मन से,
बस आवाज ये आती है,
कोई भूतनी मेरे ख्वाब में आकर,
मुझे निंद से जगाती है।

बड़ी भोर में वो भूतनी,
जाने कहा चली जाती है,
फिर रात जब होता है,
मेरे ख्वाब में आ जाती है।

मन को बड़ा डराती है,
हर रात मुझे सताती है।

हवेली सूनी होती है,
तन्हाईया जब रोती है,
इक छोटी बच्ची घर में अकेली,
जब बिन माँ के ही सोती है।

कुते रात में जोर जोर से रोते है,
सारे लोग अपने अपने घर में जब सोते है,
लम्बी सी रात,रात रात भर,
इक डरावनी कहानी बनाती है।

कोई भूतनी जब ख्वाब में,
चुपके से मेरे आ जाती है।

तब डर डर के भयभीत मन से,
बस आवाज ये आती है,
कोई भूतनी मेरे ख्वाब में आकर,
मुझे निंद से जगाती है।

मन को बड़ा डराती है,
हर रात मुझे सताती है।

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