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समर्पण और आस्था की शक्ति से मुक्कदर को पाओ

*काव्य-कल्पना*
*काव्य-कल्पना*
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कुछ तो है ऐसा जो शाश्वत है।वही चिर काल से चिर काल तक है।वह सर्वशक्तिमान ईश्वर है।परन्तु उस आध्यात्मिक ईमारत की नींव भी बस आस्था की अमिट भावनाओं पे पड़ी है।आस्था के बिना ना तो सृष्टि के सृजनात्मक कार्यो की कल्पना की जा सकती है और ना ही सृष्टिकर्ता की।जिसकी आस्था की शक्ति जितनी ज्यादा है,ईश्वर उसके उतने ही करीब है।आस्था ही वह बीज है,जो समर्पण की भावना को अंकुरित करता है मानव ह्रदय के भीतर।कीचड़ में जैसे कमल खिलता है और अपनी सुंदरता से वह सबको मोहीत कर लेता है।वैसे ही ह्रदय में आया समर्पण का भाव हमें अपने मुक्कदर की उँचाईयों तक पहुँचाता है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का मार्ग बताया है।कर्म ही श्रेष्ठ है यह अतिशयोक्ति नहीं है।पर यदि कर्म के साथ ही आस्था की शक्ति भी हो और परमसता के प्रति समर्पण का भाव भी हो तो मुक्कदर बनते देर नहीं लगती।समर्पण की उद्धात भावना के समक्ष कर्मयोग का पक्ष भी हल्का पड़ने लगता है।पर वह समर्पण ऐसा होना चाहिए जिसमें स्वयं का कोई वश ना हो।पूर्णतया खुद को सौंप दिया गया हो ईश्वर को।तब ऐसी परिस्थिती में आस्था की शक्ति और उद्धात समर्पण भाव के समक्ष भगवान अपने भक्त के लिए हर पल उपस्थित होता है।बस समर्पण का भाव पूर्णरुपेण समर्पित होना चाहिए।वहाँ किसी भी तर्क या शंका की आवश्यक्ता नहीं होनी चाहिए।

तर्क वहाँ होता है,जहाँ शंका होती है।और शंका वहाँ घर बनाता है,जहाँ आस्था की शक्ति कमजोर होती है।उद्धात समर्पण भाव के समक्ष तर्क खुद ब खुद नतमस्तक हो जाता है और जीव को शिव में एकाकार होते देर नहीं लगती।आस्था के पिछे लोभ का कोई साया नहीं होना चाहिए।किसी अमुक विषयवस्तु की प्राप्ति के लिए क्षणिक दिखाया गया समर्पण भाव कभी भी प्रगति के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोधक है।जरुरत है स्वयं के अस्तित्व के बारे में सोचने की और अपने जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक अंतःजागृति लाने की।क्या हमारा जन्म बस इन क्षणभंगूर भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए हुआ है या भौतिकता से ऊपर की भी कोई आकांक्षा है हमारे अंतःकरण में।

टेक्नोलाजी और आधुनिकता के इस युग में लोग समझते है कि बस कुछ वेदमंत्रों को पढ़ कर और भगवान की स्तुति भर कर हम सफलता की हर एक ऊँचाईयों को पा लेंगे।पर यह सर्वथा गलत है।भगवान मंत्रों का या अपनी प्रशंसा का भूखा नहीं है।वो तो बस भावना का भूखा है,जो समर्पण भाव ही दिला सकते है।स्वयं के लिये और अपनों के सुख दुख में तो सभी रोते है,पर वह जो भगवान से मिलन की उत्कंठता में रोता है और विरह में नैनों को अश्रु से भिगोता है।वही अंत अंत तक अपनी मँजिल को पाता है।ह्रदय के भाव उमर कर जब आँखों से दो बूँद बन कर बहते है।तभी भगवान के समक्ष अपनी पूजा पूरी होती है।आस्था की शक्ति इतनी मजबूत होनी चाहिए कि प्रलय के क्षणों में भी मन में यह अडिग समर्पण हो कि अपना रखवाला तो अपने साथ है।फिर देखिये वो बस पल भर में आपके जिन्दगी के सारे तूफानों को समेट देगा और मँजिल तक जाने का मार्ग बड़ी सुगमता से दृष्टिगोचर होने लगेगा।

हमारे ईतिहास में कई ऐसे संत,महात्मा हुये है जिनके पास अक्षरों की थोड़ी सी भी समझ ना थी पर उनके पास समर्पण और आस्था की शक्ति का वो अद्भूत ज्ञान था,जो उन्हें हर पल ईश्वर का सान्निध्य देता रहा।हमारा शरीर हमारी पहचान नहीं है और ना ही हमारा वजूद आज जो है वही कल है।पर अतिसूक्ष्म आत्मा का वास ही हमारे अस्तित्व की सम्पूर्णता है।आत्मा ही सार्वभौमिक है,जो ईश्वर के द्वारा हमें दिया गया तेज है।और तन के अवसान के बाद पुनः ईश्वर को समर्पित होकर विलिन हो जाता है।मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह भविष्य के बारे में उतना ज्यादा गम्भीरता से नहीं सोचता।पर स्वयं के आध्यात्मिक परिचय के लिये उसे अपने अंतिम लक्ष्य को जानने की जरुरत है।जहाँ सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है और आत्मा भी निर्वाण के पथ पर अग्रसर होता है।यह वही समर्पण की शक्ति से सम्भव होता है,जो जीवन मृत्यु के बंधनों को काटकर जीव को शिव बना देता है।

कभी भी कोई कष्ट हो एक बार अपने अराध्य देव को पुकारो।बस पुकारने में भी उद्धात समर्पण की भावना नीहित होनी चाहिये।फिर देखिये समर्पण और आस्था की शक्ति से कैसे हम एक पल में मुक्कदर की ऊँचाईयों को पा लेते है।जीवन के हर रंग में रंग जाओ पर यह रंग बस तन तक ही सीमित होना चाहिए।अपने संस्कारों को कभी भी भूलना नहीं चाहिए और निरंतर भावनाओं को सम्प्रेषित करते रहना चाहिए।यही वह समर्पण है,जो कभी द्रौपदी की रक्षा करता है कान्हा बन कर तो कभी मीरा को कृष्ण प्रेम में बेसुध कर देता है।आज बस आस्था की थोड़ी बची हुई कुछ शक्ति ही है,जो घोर कलियुग में भी ईश्वर की कृपा मिल जाती है हमें।वरना आस्था के बिना पत्थर के मूर्ती का भी कोई अस्तित्व नहीं है और साक्षात ईश्वर भी पत्थर के मूर्ती सा ही है।

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